दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो.

Saturday, November 29, 2008

मिल जुल कर नहीं रह सकते, क्यों, आख़िर क्यों???

सारे धर्म प्रेम का संदश देते हैं. हर धर्म कहता है, प्यार से मिल जुल कर रहो. मगर न जाने क्यों, लोग धर्म में अलगाव ढूँढ लेते हैं? अपने-अपने खोलों में बंद हो जाते हैं. एक दूसरे से नफरत करने लगते हैं.  दूसरों की हर बात में उन्हें केवल बुराई ही नजर आने लगती है. दूसरों की जान लेना अपनी जिंदगी का मकसद बना लेते हैं. 

कैसा होगा वह आदमी जो रेल प्लेट्फार्म पर, होटल में खाना खाते इंसानों पर, बाजार में गोलियों की बोछार कर देता है? बच्चों और औरतों पर भी जिसे रहम नहीं आता. कितनी नफरत भरी होगी उस के दिल में, और वह भी उन लोगों के लिए, जिन्हें वह जानता नहीं,  जानना क्या पहचानता तक नहीं. जो यह भी नहीं जानता कि उस की गोली से कौन मरा. किस के लिए कर रहा है वह यह सब - अपने लिए, किसी दूसरे के लिए? 

क्या मिलेगा उसे यह सब करके? जन्नत में जायेगा? हूरें मिलेंगी? अरे बेबकूफों, जो यहाँ मिला है उसे छोड़कर उस के लिए मार और मर रहे हो जिसका कुछ भरोसा नहीं कि मिलेगा भी या नहीं. 

6 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

तभी तो, राहुल सांकृतायनजी ने कहा था- मज़हब ही तो है सिखाता आपस में बैर रखना!

युग-विमर्श said...

धर्म और राजनीति मिलकर काकटेल तो हो ही जाते हैं. फिर जो इतने गहरे नशे में हो, कुछ भी कर सकता है.

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

आप स्वयं ही कर रहे, यहीं दोहरी बात.
स्वयंप्रश्न करके स्वयं, उत्तर देते तात!
उत्तर देते तात,यही भारत की दुविधा.
उसने जाना धर्म,ना समझी पंथ की दुविधा.
कह साधक कवि,सभी विज्ञ-जन यही कर रहे.
वो ही दोहरी बात, आप स्वयं भी कर रहे.

राज भाटिय़ा said...

यह सब ट्टी के कीडे बनेगे, इन का कोई धर्म नही, लेकिन जिस भी धर्म से आये है उसे भी बदनाम कर रहै हे.

ghughutibasuti said...

यदि धर्म प्रेम व सद्भाव के लिए ही बने होते तो नए नए बनाने की क्या जरूरत आन पड़ती ? बने ही अलगाववाद के लिए थे और वही कर रहे हैं ।
घुघूती बासूती

Unknown said...

धर्म तो केवल प्रेम और सद्भाव ही सिखाता है. नए नए धर्म बनाने को कोई जरूरत नहीं है. कुछ समाज सुधारक शुरुआत समाज सुधार से करते हैं पर अंत में एक नए धर्म की स्थापना ही कर देते हैं.

मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता. यह इंसानों की फितरत है कि वह एक दूसरे से बैर करते हैं और मजहब को भी उस में शामिल कर लेते हैं. अगर वह मजहब का असली मतलब समझें तो कभी आपस में बैर कर ही नहीं सकते.

राजनीति पर धर्म का प्रभाव होना चाहिए. धर्म में राजनीति की कोई जगह नहीं है.