सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा I
गावहिं मुनी पुरान बुध बेदा II
अगुन अरूप अलख अज होई I
भगत प्रेम रस सगुन सो होई II
जो गुन रहित सगुन सोई कैसे I
जल हिम-उपल बिलग नहीं जैसे II
वेद, पुरान, मुनि और बुध, सबका एक ही मत है कि अगुण और सगुण में कोई भेद नहीं है. जो ब्रह्म अगुण, अरूप, अद्रश्य और अजन्मा है, वही भक्त के प्रेम के कारण सगुण स्वरुप ग्रहण कर लेता है. जैसे जल, बर्फ और ओले की आकृति में भेद दिखाई देने पर भी तीनों वास्तव में एक ही हैं, उसी तरह अगुण और सगुण भी एक ही है.
ह्रदय में निर्गुण-निराकार का निवास होता है और नेत्र में सगुण-साकार भगवान् बिराजते हैं. ब्रह्म यदि निर्गुण-निराकार होगा तो वह सम होगा. पाप-पुन्य के प्रति भी वह उदासीन होगा. दुष्टों के प्रति न तो उस में रोष होगा, और न वह सज्जनों के प्रति रागान्वित ही होगा. विश्व को संरक्षण प्रदान करने के लिए यह ब्रह्म उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता है. भक्त इस लिए प्रार्थना करता है और यह ब्रह्म निर्गुण से सगुण बन जाता है. यह ईश्वर सम नहीं हो सकता. सगुण राम स्पष्ट कहते हैं, 'मुझे सभी लोग सम कहते हैं, पर सत्य यह है कि मुझे भक्त प्रिय हैं. विशेष रूप से अनन्याश्रित भक्त तो मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं.
(मानस मुक्तावली से साभार)
1 comment:
सच है!!!!!!!!!!!
पूर्णतयः सहमत!
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