गीता में श्री क्रष्ण ने कहा है - जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया, अर्थात वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं; क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं.
श्री क्रष्ण कहते हैं - जो पुरूष सुह्रद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं और पापियों में भी समान भावः वाला है, वह अति श्रेष्ठ है.
समता साक्षात् अमृत है, विषमता ही विष है. जहाँ समता है वहां सर्वोच्च न्याय है; न्याय ही सत्य है और सत्य परमात्मा का स्वरुप है. जहाँ परमात्मा है, वहां नास्तिकता, अधर्म-भावना, काम, क्रोध, लोभ, मोह, असत्य, कपट, हिंसा आदि के लिए गुंजाइश ही नहीं है. अतएव जहाँ यह समता है, वहां सम्पूर्ण अनर्थों का अत्यन्त अभाव हो कर संपूर्म सद्गुणों का विकास आप ही हो जाता है. क्योंकि अनुकूलता-प्रतिकूलता से ही राग-द्वैशादी सब दोषों और दुराचारों की उत्पत्ति होती है और समता में इन का अत्यन्त अभाव है, इसलिए वहां किसी प्रकार के दोष और दुराचार के लिए स्थान ही नहीं है.
सर्वत्र सम्द्रष्टि रखिये. यही सुखी जीवन का सार है.
5 comments:
आप का कहने का अर्थ है कि संपूर्ण व्यवस्था साम्यवादी हो जाए तो सर्वत्र ईश्वर/परमात्मा का साम्राज्य हो लेगा। फिर सारे कृष्ण-भक्त साम्यवाद के विरोधी क्यों है?
आज कल का साम्यवाद ईश्वर विरोधी है. मैं जिस समता की बात कर रहा हूँ वह गीतोक्त साम्यवाद है जो सर्वत्र ईश्वर को देखता है.
और भी गहरे अन्तर हैं दोनों में:
आज कल का साम्यवाद - धर्म का नाशक है, हिंसामय है, स्वार्थमूलक है, इस में अपने दल का अभिमान है और दूसरों का अनादर है, इस में परधन और परमत से असहिस्णुता है. इस में बाहरी व्यवहार की प्रधानता है, यह खान-पान-स्पर्शादि में एकता रख कर आंतरिक भेद-भावः रखता है, इसमें भौतिक सुख मुख्य है, इसमें राग-द्वेष है, इस का लक्ष्य केवल धनोपासना है.
गीतोक्त साम्यवाद पद-पद पर धर्म की पुष्टि करता है, अहिंसा का प्रतिपादक है, यह स्वार्थ को समीप भी नहीं आने देता, यह खान-पान-स्पर्शादि में शास्त्र मर्यादानुसार यथायोग्य भेद रख कर भी आंतरिक भेद नहीं रखता और सब में आत्मा को अभिन्न देखने की शिक्षा देता है, इसका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है, इस में सर्वदा अभिमान्शून्यता है और सारे जगत में परमात्मा को देख कर सब का सम्मान करना है, इसमें अंतःकरण के भाव की प्रधानता है, इसमें आध्यात्मिक सुख मुख्य है, इसमें सब का सम्मान आदर है, इसमें राग-द्वेषरहित व्यवहार है.
इन सब पर विचार करके बुद्धिमान व्यक्तियों को गीतोक्त साम्यवाद का ही आदर और व्यवहार करना चाहिए,
मेने तो देखा है आज के कृष्ण-भक्त भी ढोंग ही करते है ओरो कि तरह से , १० २० सालो से एक नया चलन चला है हरे रामा, हरे कृष्णा का,जो असल मे है हिप्पीयो का एक गरुप लेकिन अब इस्कोन के नाम से भारत मै मशहुर हो गया है, वेसे यह रामा ? ओर कृषाणा ? है कोन , मेने तो राम ओर कृषण ही सुने है.
आप का धन्यवाद
व्याख्या ऊपर-ऊपर तो ठीक लगती है पर गहरे अर्थों में भूल भरी है। "अतएव जहाँ यह समता है, वहां सम्पूर्ण अनर्थों का अत्यन्त अभाव हो कर संपूर्म सद्गुणों का विकास आप ही हो जाता है. क्योंकि अनुकूलता-प्रतिकूलता से ही राग-द्वैशादी सब दोषों और दुराचारों की उत्पत्ति होती है और समता में इन का अत्यन्त अभाव है, इसलिए वहां किसी प्रकार के दोष और दुराचार के लिए स्थान ही नहीं है." स्पष्ट है कि सद्गुण को आप श्रेयस्कर मानते हैं अन्यथा इसके विकास की चर्चा ही क्यों? सद्गुण का विकास एवं दुर्गुण का अभाव यह दॄष्टि समभाव के विपरीत है। दो में से एक को श्रेष्ठ मानना समता हो ही कैसे सकता है?
सद्गुण तो श्रेयस्कर है ही, इसमें मानने और न मानने की कोई बात ही नहीं है. व्यक्ति में सद्गुण का विकास एवं दुर्गुण का अभाव, यह दॄष्टि समभाव के विपरीत नहीं है. यह मानव जीवन का उद्देश्य है. किसी व्यक्ति का उद्देश्य बुरा बनना नहीं हो सकता. जो बुरा है वह भी कभी न कभी अच्छा बनना चाहता है.
Post a Comment