आकांक्षा पारे ने 'मोहल्ला' पर जो कविता लिखी वह मुझे बहुत अच्छी लगी।
मैं नहीं जानता यह सही है या ग़लत, पर हाँ अगर उसे मैं लिखता तो ऐसी होती वह कविता:
ईश्वर!
सड़क बुहारता भीकू मुझे अपवित्र नहीं करता,
उस से छूकर भी बिल्कुल पवित्र पहुंचता हूं तुम्हारे मंदिर में
तुम्हारा अंगना भी तो वह ही बुहारता है.
ईश्वर!
जूठन साफ करती रामी के बेटे की नज़र नहीं लगती,
तुम्हारे लिए मोहनभोग की थाली पर,
इस लिए उसे ढंकने की जरूरत नहीं पड़ती
क्योंकि तुम्ही तो खाओगे उसे
रामी के बेटे के रूप में.
ईश्वर!
दो चोटियां गुंथे रानी आ कर मचले तो
तुम्हारे शृंगार के लिए तोड़े फूल
उसे दे देता हूँ
क्योंकि रानी में तुम्हारा रूप ही तो है
ईश्वर!
अभी परसों मैंने रखा था व्रत
दूध, फल, मेवे और मिठाई खूब खाई
तुम हँसते तो होगे मेरे इस नाटक पर
पर घर वालों ने खूब तारीफ़ की.
ईश्वर!
ख़ुद को तुम्हारा प्रतिनिधि समझने वाले पंडितों से पहले,
मैंने खिलाया जी भर,
दरवाज़े पर दो रोटी की आस लिये आये व्यक्ति को
फ़िर चरण छू कर लिया आशीर्वाद
मैंने पहचान लिया था तुम्हें.
ईश्वर!
अपने हिसाब से पूजता रहा तुझे,
अपने हिसाब से भुनाता रहा तुझे,
अपने हिसाब से बांटता रहा तुझे,
फायदा मिला तो मैंने किया,
नुक्सान हुआ तो तेरे मत्थे.
ईश्वर!
इतने बरसों से
तुम्हारी भक्ति, सेवा और श्रद्धा में लीन हूं
यह भक्ति, सेवा और श्रद्धा बनी रहे
मुझे विश्वास है आओगे एक दिन दर्शन देने,
जैसे आए थे शबरी के घर.
4 comments:
sahi kaha hai aap ne !
बहुत अच्छा
बहुत ही सुन्दर ओर पबित्र भाव.
धन्यवाद
पढ़वाने के लिए शुक्रिया भाई जी !
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