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Wednesday, November 26, 2008

धर्म और राजनीति

महात्मा गाँधी ने कहा था, 'मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है. मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविशवासों और ढकोसलों का धर्म नहीं. वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है. नैतिकता से बिलग राजनीति को त्याग देना चाहिए.' उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है. 

गाँधी जी यह भी कहा - 'धर्म का अर्थ कट्टरपंथ से नहीं है. उसका अर्थ है विश्व की एक नैतिक सुव्यवस्था में श्रद्धा. वह अदृष्ट है इसलिए उसकी वास्तविकता कम नहीं हो जाती. यह हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म आदि सबसे परे है. यह उन धर्मों का उच्छेद नहीं, समन्वय करता है और उन्हें वास्तविक धर्म बनाता है.'

आचार्य तुलसी ने भी एक बार कहा था, 'धर्म को पहला स्थान और सम्प्रदाय को दूसरा स्थान दिया जाय तभी धर्म, समाज और राज्य के लिए प्रकाश-पुंज बन सकता है.' उनके अनुसार धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं हैं. सम्प्रदाय धर्म की व्याख्या अथवा संप्रेषण की गुरु-परम्परा है. 

वर्तमान में सत्य, अहिंसा तथा नैतिकता वाला धर्म किसी अज्ञात कौने में छिपा बैठा है और सांप्रदायिक अभिनिवेश वाला धर्म उजागर हो रहा है. इस अवस्था में तथाकथित धर्म और राजनीति के बिलगाव की आवश्यकता चिन्तनशील तटस्थ व्यक्ति को महसूस होती है और होनी चाहिए. धर्म और राजनीति में बिलगाव की आवश्यकता के प्रश्न को सापेक्षद्रष्टि से देखना होगा. सांप्रदायिक कट्टरता और धर्म को हम एक ही आँख से देखें तो राजनीति और धर्म के अलगाव की आवश्यकता लोकतंत्र का प्रथम उच्छ्वास है. यदि धर्म को हम सत्य और अहिंसा तथा  नैतिकता की आँख से देखें तो राजनीति धर्म से शून्य होकर खतरे की घंटी से अधिक नहीं हो सकती. 

(लोकतंत्र - नया व्यक्ति नया समाज से साभार)