जब भी मैं किसी मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च के सामने से निकलता हूँ, मेरा मन श्रद्धा से गदगद हो जाता है - यह उसका घर है जो हम सबका मालिक है. हाथ अपने-अपने जुड़ जाते हैं इबादत में. मन में एक प्रार्थना जन्म लेती है - सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, सब के मन में एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव हो, सहानुभूति हो, मित्रता पूर्वक साथ रहने का संकल्प हो. पर कुछ लोग मालिक के घर को अपवित्र कर देते हैं, उसकी छत के नीचे षड़यंत्र रचते हैं, मालिक के नाम पर अनेतिक धंधे करते हैं. यह नहीं सोचते कि जो भी वह कर रहे हैं उसका फल उन्हें जरूर मिलना है, वह उस से बच नहीं सकते. जब लोग ऐसा करते हैं तो मालिक को बहुत दुःख होता है. वह उन्हें तरह-तरह से आगाह करता है, पर यह लोग नहीं समझते.
प्रेम से आँखें गीली हो जाती हैं. नफरत से आँखें जलती हैं. पर लोग प्रेम कम और नफरत ज्यादा करते हैं. आँखें होते हुए भी अंधों जैसा व्यवहार करते हैं. मालिक के घर में झाड़ू-पौंछा लगाने का ढोंग करते हैं, और घर जाकर माता-पिता का अपमान करते हैं. कुछ लोग अपने घर में मालिक का घर बनाते हैं, पर कुछ लोग मालिक के घर में अपना घर बना लेते हैं. नाम मालिक का पर उस के घर पर अधिकार अपना जमाते हैं. इस अधिकार के लिए आपस में झगड़ते हैं, मुकदमेबाजी करते हैं. मालिक के नाम पर आए दान से अपना घर चलाते हैं. मालिक के दर्शन पर टिकट लगा देते हैं. जितना बड़ा घर उतना बड़ा टिकट.
समझ में नहीं आता कि मालिक का घर अब कितना मालिक का बचा है?
1 comment:
बिलकुल सच लिखा है आपने लोग धर्म के नाम पर ढौंग करते है धार्मिक स्थान राज्नीति और अव्यवस्था के अखाडे
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