दैनिक प्रार्थना

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Thursday, March 13, 2008

हिन्दू, मुसलमान, क्या नही रहे इंसान?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

एक
गाँव मैं एक आदमी आया
गाँव के बाहर पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गया.
हिन्दुओं
ने समझा कोई संत हैं,
मुसलमानो
ने समझा कोई फकीर हैं,
पंडितजी
आए, मौलाना आए,

'आप गाँव के मेहमान हैं',
'क्या सेवा करे आपकी',
'प्यासा हूं पानी पिला दो, भूखा हूं खाना खिला दो',
पंडितजी बोले अभी लाये,
मौलाना बोले अभी लाये,

मेहमान ने कहा 'एक बात का ध्यान रखना,
जो पानी और खाना हिंदू लाये उसमे न लगा हो हाथ गैर हिन्दू का,
ऐसे ही ध्यान रखे मुसलमान,
जो पानी और खाना वह लाये उसमे न लगा हो हाथ गैर मुसलमान का,
लोग चकरा गए,
ऐसे कैसे हो सकता है,
यह गारंटी कैसे दी जा सकती है,
पानी एक है, धूप एक है, हवा एक है,
खेतो मैं हाथ लगा है सब का,
किसने बनाये बर्तन भांडे,
किसने आटा पीसा,
हाथ जोढ़ कर बोले दोनों,
शर्त कठिन है इसे हटाओ.

मेहमान ने कहा या तो मेरी शर्त मानो,
या मैं तुम्हारे गाँव से भूखा जाऊंगा,
पंडितजी ने कहा हमे छमा करो,
मौलाना ने कहा हमे माफ़ करो,
मेहमान ने कहा,
जब सब कुछ एक है तो तुम कैसे अलग हो,
तुम हिन्दू, यह मुसलमान,
क्या नहीं रहे तुम इंसान?
धरम पर करो बंद हिंसा,
दोनों मिलकर पानी लाओ,
दोनों मिलकर खाना लाओ,
यही हुआ,
मेहमान ने खुशी से खाना खाया और पानी पिया,
सबके लिए दुआ की और अगले गाँव चला गया.

कहानी कहती है,
उस गाँव मैं फिर धरम के ऊपर फसाद नहीं हुआ.

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