जब आतंकवाद के ख़िलाफ़ मुस्लिम स्कालर्स ने फतवे जारी किए थे तब यह आशा बंधी थी कि आतंकवादी उनका सम्मान करेंगे और आतंकवादी हमलों में कमी आएगी. पर हुआ उस का उल्टा, आतंकवादी हमले और बढ़ गए.
मुस्लिम स्कॉलर्स के अनुसार आतंक फैलाना और निर्दोष लोगों की हत्या करना इस्लाम के ख़िलाफ़ है. तब इस्लाम के नाम पर यह खून खराबा क्यों हो रहा है? क्या यह आतंकवादी इस्लाम में यकीन नहीं रखते? अगर ऐसा है तो इन्हें मुस्लिम बिरादरी से निकाला जाना चाहिए. इन के साथ वही होना चाहिए जो इस्लाम का अपमान करने वालों के साथ किया जाता है, जो सलामन रशदी के साथ किया गया, जो तसलीमा नसरीन के साथ किया गया.
या यह फतवे सिर्फ़ दिखाने के लिए जारी किए थे और इन का मकसद आतंकवाद का खात्मा करना नहीं था. कहीं यहाँ पर यह कहावत तो लागू नहीं हो रही - फतवे दिखाने के और, बताने के और.
10 comments:
बताने के लिए आपका धन्यवाद. मेरी आपसे गुज़ारिश है यदि आपके पास इनके नाम और पते हो तो भेज दें मेरा वादा है इनके खिलाफ फतवा लेकर मैं आऊंगा.
फतवे लिखने वाले ही शामिल हो तो? बहुत दुख की बात है की सिमी के साथ यहाँ कई मौलवियों के तार जुड़े हुए है.
भाई नदीम फतवों से कुछ नहीं होने वाला, मुसलमानो का नैतृत्व प्रगतिशील लोगो के हाथ में जाए यही कामना है, इसी में सबका भला है.
चिन्तन प्रधान लेख लिखा है आपने। बधाई।
नदीम जी, मौलवियों द्बारा जारी किए गए फतवे के बारे में ख़बर तो सब प्रमुख अखबारों में छपी थी. वीजेपी ने इसका जोरदार स्वागत भी किया था. आपकी नजर में यह ख़बर कैसे नहीं आई? इस ख़बर में फतवा जारी करने वाले मौलवियों के नाम भी छपे थे.
सुरेश जी बिलकुल वो ख़बर मेरी नज़र में आई थी मगर मैं मोलवियों की नहीं आतंककियों की बात कर रहा था. क्यूँकि लेख में उन मुसलमानों को धर्म से निकालने की बात कही गयी है जो कि आतंकी हैं. और फतवे की शर्त ये है कि पहले पता तो हो उसका नाम जिसके बारे में फतवा जारी करना है.
नदीम जी, अफज़ल का नाम लेते हैं. क्या लायेंगे उस के नाम फतवा?
बेशक आपने एक सही इंसान का नाम लिया जिसको बाहर किया जाना चाहिए. मगर उसके लिए फतवे की ज़रूरत नहीं है. दीन इ इस्लाम जहाँ वतन की मुहब्बत को आधा ईमान बताया गया हो वो वहां सिफर हो गया है और इस बात को सारी दुनिया जानती है, तो फतवे की ज़रूरत ही ख़तम हो जाती और जो लोग उसे मुसलमान कहते हैं इसमें उनके इस्लाम की जानकारी की कमी ही सामने आती है,वो कहने वाले चाहे किसी भी धर्म से हों. अब इस बात पर केवल राजनीति ही हो सकती है. उसे चाहे अब फँसी दे दो या कल, मुझे नहीं लगता जिसको मेरे द्वारा ऊपर बताई बात की ज़रा भी जानकारी होगी वो उसके समर्थन में कुछ कहेगा भी. और मेरी कोशिश होगी कि किसी दिन पूरी जानकारी लेने के बाद कि फतवा दरअसल क्या है और कब और क्यूँ लिया जाता है तो इस पर एक पोस्ट लिखूं जिसको पढ़कर थोडा लोग फतवे के बारे में जाने और इसके बारे में थोडी सोच बदलें. फिलहाल इतना कहना चाहूँगा कि फतवा कोई हुक़्म नहीं होता है, वो केवल एक मार्गदर्शन होता है क़ुरान और हदीस की रौशनी में और ये इस बात पर तय होता है कि फतवा मांगने वाले ने इस बारे में क्या तर्क दिए हैं. केवल ये तर्क का ही खेल है कि कईं बार लोग अपनी मर्ज़ी का फतवा ले आते हैं. बाकी थोडा और जानकारी ले लूं तब बता हूँ.
नदीम जी, आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद. आप समझते हैं, आप जैसे बहुत से मुसलमान भी समझते हैं. पर ऐसे मुसलमानों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो यह नहीं समझते. वह तो इन आतंकवादियों को इस्लाम का रक्षक समझते हैं, इन्हें अपना हीरो मानते हैं. इन्हें कौन समझायेगा? क्या यह इस्लाम के धर्म-नेताओं की जिम्मेदारी नहीं है? किसी की जान ले लेना कैसे सही हो सकता है? ऐसे फतवे भी आए हैं जिनमें दूसरों की न केवल जान लेने की बात कही गई बल्कि ईनाम भी घोषित किया गया. क्या एक ऐसा फतवा नहीं जारी हो सकता जिसमें कहा जाए कि आतंकवादियो की मदद करने वाले को मुस्लिम धर्म से निकाल दिया जायेगा?
सुरेश जी धन्यवाद की ज़रूरत नहीं है, मैं बचपन से जैसे माहौल में पला बड़ा हुआ हूँ हर क़दम पे भेदभाव देखें हैं. मैंने अपनी नन्ही आँखों के सामने लोगों को अपनी तलवारों और चाकू-छुरियों पर धार लगते देखा है, सिर्फ मुसलमानों को मारने के लिए और उस वक़्त मेरी माँ मुझे घर में लेकर दुपक जाती थी. मगर हमें अपने धर्म में जो सिखाया गया उसमें वो सब नहीं था जो आजकल लोग बयान करते हैं. आपको शायद यकीन नहीं आएगा मैं एक मदरसे में पढ़ा हूँ और हमारे साथ कईं हिन्दू धर्म के बच्चे भी पढ़ा करते थे, हाँ बस वो सीनियर क्लास में थे और बस स्कूल की पढाई के लिए ही आते थे और बस अपनी ५च्वि कक्षा की पढाई करते थे. अगर बकौल लोग जो कि मदरसों के बारे में बकवास करते है तो अब तक मुझे और उन हिन्दू बच्चों को आतंकवादी होना चाहिए था. वजह ये है कि लोग जहाँ धर्म की बात आती है वहां अपनी आँख और कान बंद कर लेते हैं बस ज़बान ही खुली रहती है जिससे केवल मारो- मारो की ही आवाज़ आती है. रही बात अगर आप डेनमार्क वाले किस्से की बात कर रहे हैं तो वो इनाम का एलान जहाँ तक मुझे याद है UP के एक मंत्री ने किया था और उनको धार्मिक नेता नहीं कहा जा सकता मगर यदि हम किसी के धर्म की मजाक नहीं बना रहे तो उम्मीद करते हैं कि कोई हमारे धर्म की भी न बनाये. और इस वक़्त जहाँ केवल इस्लामिक आतंकवाद की ही चर्चा हो रही है, ये केवल वक़्त की बात है पंजाब में आतंकवाद के समय केवल सिख भाइयों को ही शक़ की नज़र से देखा जाता था. ये तो एक वक़्त और दौर की बात होती है,लोग बाप की गलती पे अक्सर उसके बेटे को भी नहीं बक्शते. हमारे देश में जहाँ अलग अलग समुदाय के बारे में उलटी सीधी कहावतें मशहूर हैं.लोग एक दूसरे को एक ही धर्म का होने के बावजूज नीची नज़र से देखते हैं वहाँ हम बराबरी की उम्मीद नहीं कर सकते. और आपके अनुसार रही बात धर्म से निकालने की, उसे तो छोडिये पिछले दिनों जब रैली करके धार्मिक नेताओ( हालांकि वो कोई चुनाव लड़कर नहीं बनाते पर खेर कहा जाता है तो) ने जब आतंकवाद के खिलाफ बयां दिया और फतवा दिया तो लोगों ने उसे एक ढोंग मात्र ही बताया तो आप क्या उम्मीद करते हैं कुछ अच्छा करने की कोशिश में यदि एक और नया फतवा आयेगा तो क्या कोई यकीन करेगा.
सुरेश जी अगर वो मंज़र किसीकी नज़रों के आगे गुज़रे की लोग आपके लोगों(इनके अनुसार) मारने के लिए अपनी तलवारें आपके सामने बैठ कर सजाएं और ऐसे अध्यापक हो जो नहीं चाहते हों कि कोई मुस्लिम बच्चा कक्षा में अव्वल आये इससे बचने के लिए वो किसी खास धर्म और जाति के बच्चे को बुलाकर पूरा प्रश्न पत्र प्रश्न संख्या के साथ पकड़ा दें तो आप अपने आप ज़माने और समाज से नफरत करने लग जायेंगे मगर मुझे ये मेरे धर्म और उसकी शिक्षा से मिला है कि एक इंसान ग़लत हो सकता है मगर पूरे समाज को ग़लत नहीं कहा जा सकता तो मैं कैसे अपने धर्मे के बारे में लोगों को कैसे बकवास करते देख सकता हूँ. यही वजह है कि आज मुझसे मुहब्बत करने वाले लोगों की कमी नहीं है मेरे सिर में भी दर्द होता है तो मेरे धर्म के लोगों से पहले अन्य धर्म ke लोग मेरे सिरहाने खड़े होते है.
नदीम जी, एक बार फ़िर आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद. भेदभाव मैंने भी देखे हैं. मैं जहाँ पैदा हुआ, पला और बड़ा हुआ, वहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं. बचपन में होली पर मुसलमान सड़क पर चारपाई बिछाकर बैठ जाते थे और कहते थे इस रास्ते से होली का जलूस नहीं गुजरेगा और अगर हमारे ऊपर रंग की एक बूँद भी डाली तो कत्लेआम हो जायेगा. शिवरात्रि पर सड़क पर बाधाएं लगाकर जलूस उधर से नहीं गुजरेगा यह ऐतराज किया जाता था. जरा सी बात पर झगड़े हो जाते थे और कर्फ्यू लग जाता था. एक बार जब मुसलमानों ने हमारे मुहल्ले पर आक्रमण किया था तो उनमें सबसे आगे हमारा एक दोस्त था बन्दूक हाथ में लिए हुए. वह चिल्ला रहा था कि आज इन सारे काफिरों को ख़त्म कर दो.
गलतियां दोनों तरफ़ से होती हैं. अगर कुछ हिंदू तत्व मुसलमानों पर ज्यादती करते हैं तो जितने हिंदू इस का विरोध करते हैं, उतने मुसलमान विरोध नहीं करते जब हिन्दुओं के साथ ज्यादती की जाती है. जब हुसैन ने माँ दुर्गा की नंगी तस्वीर बनाई तो कितने मुसलमानों ने उस का विरोध किया? गुजरात में जो हुआ उसका विरोध हिन्दुओं ने ज्यादा किया और कर रहे हैं. लेकिन कितने मुसलमानों ने ट्रेन में जो हिंदू जले उस पर अफ़सोस जाहिर किया? अमरनाथ जी की यात्रा में यात्रियों को आराम मिल सके इसके लिए जमीन देने का किसी मुसलमान ने समर्थन नहीं किया, बल्कि हिंसक प्रदर्शन किए. यह सारी बातें हम जैसे हिन्दुओं के दिल में तकलीफ पैदा करती हैं. हम कभी मुसलमानों के मजहब का अनादर नहीं करते पर हमारे मजहब का रह रह कर अनादर किया जाता है. हमारे धर्म को हिंसक धर्म कहा जाता है. हमें कम्युनल कहा जाता है. आज सीमा पार से जिहादी आते हैं और उनके साथ मिलकर कुछ हिन्दुस्तानी मुसलमान हमले करके न जाने कितने निर्दोधों को मौत दे देते हैं.
सीधी सी बात है नदीम जी, हिंदू और मुसलमानों को एक दूसरे पर विश्वास करना सीखना होगा. अगर नहीं सीखेंगे तो इसी तरह कभी यह और कभी वह मरते रहेंगे.
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