दैनिक प्रार्थना

हमारे मन में सबके प्रति प्रेम, सहानुभूति, मित्रता और शांतिपूर्वक साथ रहने का भाव हो.

Thursday, January 15, 2009

Monday, January 12, 2009

गणपति आरती

लता जी की मधुर आवाज में गणपति की आरती सुनिए 

Friday, January 09, 2009

मानव शरीर किस लिए है?

शिष्य ने गुरु से पुछा, 'हमें यह मानव शरीर किस लिए मिला है?'
गुरु जी बोले, 'मानव ईशर की उत्कृष्ट रचना है. मानव शरीर पाकर हम ईश्वर को पा सकते हैं, पर उसके लिए हमें इस शरीर का सही उपयोग करना होगा. 
हम इस शरीर से बहुत सारे काम लेते हैं. मस्तिष्क सोचता है, हम हमेशा अच्छा सोचें, हमारे मन में हर समय ईश्वर का ही ध्यान हो. हमारा सोच अहिंसक हो. 
जिव्हा से हम बोलते हैं. हम हमेशा अच्छा बोलें, हमारी जिव्हा पर हर समय ईश्वर का ही नाम हो. हमारे वचन मधुर और अहिंसक हो. 
आंखों से हम देखते हैं.हम हमेशा अच्छा देखें. हमारी आँखें हर प्राणी में ईश्वर का ही दर्शन करें. 
कानों से हम सुनते हैं. हम हमेशा अच्छा सुनें. हमारे कान हर समय ईश्वर का गुणगान सुनें. 
हाथों से हम काम करते हैं. हम हमेशा अच्छे काम करें. हमारे हाथ हमेशा ईश्वर को प्रणाम करने के लिए जुड़े रहें. हमारे हाथों से सब प्राणियों का भला हो. 
पैरों से हम चलते हैं. हमारे पैर हमेशा अच्छे रास्तों पर चलें. हमारे पैर तीर्थ यात्रा पर चलें. दूसरों की सहायता के लिए हमारे पैर हमेशा चलने को तैयार रहें. 
हमारा शरीर हमेशा जन कल्याण और ईश्वर प्राप्ति में लगा रहे. 

Wednesday, January 07, 2009

मालिक का घर अब कितना मालिक का बचा है?

जब भी मैं किसी मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च के सामने से निकलता हूँ, मेरा मन श्रद्धा से गदगद हो जाता है - यह उसका घर है जो हम सबका मालिक है. हाथ अपने-अपने जुड़ जाते हैं इबादत में. मन में एक प्रार्थना जन्म लेती है - सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सानंद हों, सब के मन में एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव हो, सहानुभूति हो, मित्रता पूर्वक साथ रहने का संकल्प हो. पर कुछ लोग मालिक के घर को अपवित्र कर देते हैं, उसकी छत के नीचे षड़यंत्र रचते हैं, मालिक के नाम पर अनेतिक धंधे करते हैं. यह नहीं सोचते कि जो भी वह कर रहे हैं उसका फल उन्हें जरूर मिलना है, वह उस से बच नहीं सकते. जब लोग ऐसा करते हैं तो मालिक को बहुत दुःख होता है. वह उन्हें तरह-तरह से आगाह करता है, पर यह लोग नहीं समझते. 

प्रेम से आँखें गीली हो जाती हैं. नफरत से आँखें जलती हैं. पर लोग प्रेम कम और नफरत ज्यादा करते हैं. आँखें होते हुए भी अंधों जैसा व्यवहार करते हैं. मालिक के घर में झाड़ू-पौंछा लगाने का ढोंग करते हैं, और घर जाकर माता-पिता का अपमान करते हैं. कुछ लोग अपने घर में मालिक का घर बनाते हैं, पर कुछ लोग मालिक के घर में अपना घर बना लेते हैं. नाम मालिक का पर उस के घर पर अधिकार अपना जमाते हैं. इस अधिकार के लिए आपस में झगड़ते हैं, मुकदमेबाजी करते हैं. मालिक के नाम पर आए दान से अपना घर चलाते हैं. मालिक के दर्शन पर टिकट लगा देते हैं. जितना बड़ा घर उतना बड़ा टिकट. 

समझ में नहीं आता कि मालिक का घर अब कितना मालिक का बचा है? 

Sunday, January 04, 2009

मन्दिर का धंधा

मैं सुबह जिस पार्क में घूमने जाता हूँ उसके पास एक मन्दिर है. मैं कभी मन्दिर के अन्दर नहीं गया, बाहर से ही भगवान को प्रणाम कर लेता हूँ. पार्क में आए कुछ सज्जन अक्सर मन्दिर के बारे में बात करते हैं. उनकी बातों से लगता है जैसे मन्दिर एक धंधा हो गया है. इस धंधे पर अधिकार पाने के लिए कुछ लोगों के बीच मुकदमा चल रहा है. लेकिन आज कल मन्दिर पर मोहल्ले के गुंडे का अधिकार है. सारे लोग उस से डरते हैं, या यह कहा जाय कि उस के घूंसे से डरते हैं. भूतकाल में उस ने कई लोगों को घूंसे लगा रखे हैं. हो सकता है भविष्य में यह मन्दिर 'घूंसे वाला मन्दिर' कहलाये. 

मन्दिर में धार्मिक कार्यक्रम चलते रहते हैं, भंडारे होते रहते हैं. इसमें काफ़ी कमाई होती है. दान पात्र में श्रद्धालु स्त्री-पुरूष काफ़ी धन डालते हैं. यह दान पात्र कब खोल लिया जाता है, इस में कितना पैसा मिला और कितना पैसा किस की जेब में जाता है, रहस्य का विषय है? चुपके से लोग यह कहते सुनाई पड़ते हैं कि मन्दिर की काफ़ी कमाई घूँसेबाज की जेब में जाती है. मन्दिर में दुकाने बनी हैं, इनका किराया भी शायद इसी जेब में जाता है. मन्दिर के बगल में एक दो मंजिला इमारत है, जिस में एक काफ़ी बड़ा हाल है, जिसे शादी या अन्य उत्सवों के लिए किराए पर दिया जाता है. इस से भी काफ़ी आमदनी होती है.

मतलब यह कि मन्दिर का धंधा काफी धूम से चल रहा है. वर्तमान मंदी का इस धंधे पर कोई असर नहीं हुआ है. लोग खुले ह्रदय से दान देते हैं. पता नहीं भगवान् को यह सब पता है या नहीं पर उनके नाम पर लोग अच्छा धंधा कर रहे हैं. जैसे डीडीऐ के ड्रा में उन लोगों के नाम से मकान निकल आए जिन्होनें एप्लाई ही नहीं किया था.  

Friday, January 02, 2009

वाँछित और अवांछित

मर्यादा का अतिक्रमण - 
- अधिकार का अतिक्रमण
- व्यवहार का अतिक्रमण
- व्यवस्था का अतिक्रमण

तन, मन, धन -
- तन मध्यम
- मन विशाल
- धन कम 

मस्तक, ह्रदय, चरण - 
- मस्तक वौद्धिकता
- ह्रदय हार्दिकता
- चरण धार्मिकता